“अरे रामपरसाद कौन है? काउंटर पर जल्दी
आइये!” कैशियर का स्वर तीखा था| उनकी झुंझुलाहट
दिख पड़ती थी| रोज़ 400- 500 लोगों का काम निपटाने हेतु समय का ध्यान
रखना बहुत आवश्यक है| ऐसे में यदि कोई ग्राहक एक बार में ना पहुँचे, तो मैडम का अधीर
हो जाना न्यायसंगत है| पर कैशियर मैडम इस बात से अंजान थीं कि रामपरसाद बहरा था| उसे कुछ भी सुनाई
नहीं देता था| असल दोषी उसकी धर्मपत्नी थी – दमयंती| यह तो दमयंती का
काम था कि कैशियर के बुलावे पर रामपरसाद को काउंटर तक ले कर जाये| अपने कर्तव्य को
भूल कर दमयंती वाटर कूलर पर
पानी पीने चली गयी थी| दूसरी बार नाम सुन कर जल्दी जल्दी आई|
“रामपरसाद कौन है?” कैशियर मैडम ने
एक महिला के आने की अपेक्षा नहीं की थी|
“रामपरसाद मेरा डोकरा है|” दमयंती ने अपने
पति की ओर इशारा करते हुए कहा|
औपचारिकताएँ पूरी हो जाने पर दमयंती अपने पति के साथ
पेंशन राशि प्राप्त कर वापस घर चली आई| दमयंती की दिनचर्या पति और
खुद की देख रेख करने में ही बीत जाती थी| इस दंपती के पास आय का कोई
विशेष साधन नहीं था| सरकारी पेंशन और दमयंती द्वारा सिलाई-बुनाई से की गयी
कमाई ही इनके जीविकोपार्जन का स्त्रोत थी| रामपरसाद एक
किसान हुआ करता था| बहुत धनाड्य तो नहीं था, लेकिन खाने पीने
की कोई कमी नहीं रहती थी| उसने अपने बेटे की शादी करने के बाद अपने खेत खलिहान भी
उसके नाम पर कर दिये, और एक दिन बेटे ने ही घर से निकाल दिया| दमयंती ने
रामपरसाद को ऐसा करने से रोका था| उसे अपनी बहू के लक्षण सही नहीं लग रहे थे| उसका
झगड़ालू स्वभाव आए दिन परिवार में चिंता का
कारण बनता था| ज़मीन की लड़ाई भी इसलिए शुरू हुई | रामपरसाद ने सोचा
ज़मीन दे कर अगर घर में शांति आ जाए तो क्या बुरा है? दमयंती को यह
बात ठीक नहीं लगी| उसने “डोकरे”को यह बात समझानी चाही कि बात खेत की नहीं
बल्कि नीयत की है| रामपरसाद औरतजात की सोच से अनभिज्ञ नहीं था| उसे बचपन से ही
समझाया गया था कि औरत की बात सुनने पर घर टूट जाएगा| सो उसने दमयंती
की बात एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दी| छह महीना साल भर होते होते दोनों घर से बाहर निकाल दिये
गए| रामपरसाद बहुत क्रोधित हुआ, गालियां देने
लगा, कोसने लगा, आस पड़ोस के लोगों को सुनाने
लगा| दमयंती चुपचाप खड़ी थी| उसने इस दिन की
अपेक्षा कर रखी थी| उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार की अशांति, क्रोध, विस्मय या दुख
के भाव नहीं थे| उसने पति को ढान्ढस बँधाया और वहाँ से चलने को कहा| इस घटना को 10 साल
हो गए| रामपरसाद अब बहुत बूढ़ा हो चुका है| अब उसकी सुनने की
शक्ति भी जा चुकी है| फिर भी अपनी शेष ऊर्जा से आज भी अपने बहू बेटे को कोसता
पाया जाता है| दिनभर हवा में गांठ बांधता रहता है| “उन लोगों को
कोर्ट में घसीट दूंगा| समाज में ऐसी किरकिरी करूंगा कि चार लोग थूकेंगे| तू देखना दमयंती|” पर दमयंती ऐसा
कुछ नहीं करती| उसने अपना भाग्य स्वीकार कर लिया| उसने सिलाई
बुनाई से कुछ पैसे जुटाने शुरू किए और अपना और पति का सरकारी पेंशन का काम भी पूरा
किया| दमयंती व्यावहारिक महिला है| उसे पता है कि बहू
बेटे को कोसने से पेट नही पलेगा| इसलिए यह काम वह रामपरसाद को अकेले ही करने देती है| शुरूआत में अपने
इस क्रोध पर अपनी पत्नी की ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर रामपरसाद चिढ़ जाता था, लेकिन अब उसने
भी दमयंती का यह स्वभाव स्वीकार कर लिया
है| अब वह अकेले में ही बुदबुदाता रहता है| कुल मिला कर
पैसों की तंगी होने के बाद भी दोनों पति-पत्नी एक स्तर पर संतुष्ट हैं| सच है, चाहे कितनी ही
बड़ी विपत्ति हो, उसे स्वीकार कर लेने से समस्या की तीव्रता कम होने लगती
है|
“तुमको अपना ब्रांड मैनेजर बना कर मैंने बहुत बड़ी गलती
कर दी! तुम्हें 5 करोड़ का बजट दिया, इतनी बड़ी गारमेंट कंपनी का
ब्रांड पहले से बना हुआ है| तुमने क्या किया??” तनेजा साहब का
गुस्सा किसी से छुपा नहीं था| नीलिमा का उत्साह और उसकी प्रतिभा को देखते हुए
उन्होंने उसे जल्दी प्रोमोट किया था| लेकिन आज यही पदोन्नति
उन्हें बहुत खल रही थी|
“सर रिसेशन है| मंदी के दौर में उपभोक्ता
बहुत सचेत हो जाते हैं| ब्रांडिंग से भी फर्क नहीं पड़ता|” नीलिमा ने नरम
स्वर में कहा|
“अच्छी बात है| तब तो हमें तुम्हारी ज़रूरत
ही नहीं| जब ब्रांडिंग का कोई असर ही नहीं होना तो उसके लिए अलग
से एम्प्लोयी और बजट क्यूँ रखना|” तनेजा साहब ने तपाक से पलटवार किया|
“सर हम पूरी कोशिश कर रहे हैं|” नीलिमा की
आँखें भीग गईं|
“नीलिमा तुम्हारा बजट अब 1 करोड़ है| और समय सिर्फ 10
दिन| अगर अगले 10 दिनों में तुमने कोई बड़ा
ब्रेक-थ्रु नहीं दिया, तो अपना इस्तीफा दे देना|” तनेजा साहब का
अल्टिमेटम आया|
“सर इस्तीफा?” नीलिमा के आँसू बेह निकले!
“यस! इस्तीफा! रेसिग्नेशन! त्यागपत्र! चाहो तो गूगल में
और भी वर्ड्स ढूंढ लो|” कह कर तनेजा जी निकल गए| इतनी बड़ी
कंपनी का निदेशक होना कोई मामूली बात नहीं| दुनिया भर का
दबाव रहता है| अब पूरा दबाव तो आप नहीं झेल सकते| इसलिए उस दबाव
का एक सूक्ष्म हिस्सा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर पटकना ही उचित है|
नीलिमा का घर आ के बुरा हाल था| चुपचाप बैठी थी| खाने पीने से
कोई मतलब नहीं| वह शून्य में निहार रही थी| उसके ऊपर भी
नाना प्रकार के उत्तरदायित्व थे| छोटी बहन निशि की
पढ़ाई लिखाई की भी चिंता थी| निशि को भी
अपनी बड़ी बहन का यह हाल देख कर दुख हो रहा था| वह नीलिमा के
पास आई और उसे गाँव से लायी हुई टेबल कवर दिखने लगी| “देखो दीदी| इतनी सुंदर
एंब्रोईडरी है| हम गांव गए थे तो वहाँ एक आंटी बनाती हैं| उन्हीं से
खरीदे! बस 100 रुपये में|”
दमयंती कपड़ों पर कलाकृतियाँ बनाने में दक्ष थी| गाँव के लोग भी
उसके इस गुण की तारीफ करते थे| शहर से आए हुए अपने महमानों को उपहार स्वरूप वे यही दिया करते थे| कभी रूमाल, कभी पर्दे तो
कभी कुछ और| अन्य उपहारों की तुलना में यह भेंट कुछ सस्ती ही पड़ती
थी| शहर निवासी भी इन कला-कृतियों को “हैंड-मेड क्राफ्ट्स”
के कैप्शन के साथ इंस्टाग्राम पर अपलोड करते और वाह वाही बटोरते| हल्दी लगे न
फिटकिरी, रंग चोखा! गाँव वाले भी खुश, और उनके
रिश्तेदार भी|
नीलिमा को कुछ सूझा! वह अगले ही दिन दमयंती से मिलने
पहुंची| उसे दमयंती का काम बहुत पसंद आया| उसने तुरंत अपने
बॉस को कॉल किया|
“सर मुझे एक ब्रेक-थ्रू मिल गया है|”
बस फिर क्या था|
महिला-सशक्तिकारण, स्वदेशी विकास और हस्त-कला जैसे शब्दों का प्रयोग कर
तनेजा साब और नीलिमा ने हल्ला मचा दिया| प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक और
सोशल मीडिया पर, हर जगह वह फुटेज चलने लगी जहां तनेजा साहब दमयंती को दस
लाख का चेक़ देते हुए दिख रहे हैं| सी-एस-आर भी, ब्रांडिंग भी| और यह सब बजट के
सिर्फ 10 परसेंट में| नीलिमा को शाबाशी के साथ साथ बोनस भी मिल गया| तनेजा साहब के
लिए 10 लाख कुछ भी नहीं थे, पर दमयंती ने तो पूरे जीवन काल में इतनी धनराशि नहीं
देखी थी| उसे बहुत खुशी हुई| रामपरसाद भी
बहुत खुश हुआ|
2 लोग और थे जिनको खुशी हुई| दमयंती के बेटे
और बहू को अचानक अपनी गलती का एहसास होने लगा| वे दमयंती और
रामपरसाद को लेने आए और पैरों में गिर गए|
“अपने माँ बाप को बाहर निकाल कर मैंने बहुत बड़ा अपराध
किया है| आप दोनों वापस चलिये और हमारे साथ रहिए| इस पाप का
प्रायश्चित यदि मैंने नहीं किया, तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी |” बेटा पश्चाताप
करने लगा|
“असली दोष तो मेरा है| पता नहीं कौन से
पुण्य किए होंगे पिछले जनम में जो ऐसी सास मिली| और मैं उन्हें
ही भला बुरा कहती रही| अब अगर आजीवन आपको खाना न खिलाऊँ और आपकी सेवा न करूँ, तो नरक भोगूँ|” बहू भी रोने
लगी|
रामपरसाद दोनों को कोसने लगा| “अब पैसा आया है
तो सेवा करने आए हो| कितने नीच हो तुम दोनों| निकल जाओ मेरे
घर से|"
“हमें कुछ नहीं चाहिए बाबा! आप बस घर चलो| माँ बाप तो अपने
बच्चों की गलतियाँ माफ कर ही देते हैं|”
दमयंती पास में खड़ी सब देख रही थी| उसने कोई
प्रतिक्रिया नहीं दी| बहुत अनुनय-विनय करने के बाद रामपरसाद मान गया| कहने लगा, “तुम लोगों इतना
बोल रहे हो इसलिए मान रहा हूँ| वरना मैं कभी नहीं आता| चल दमयंती, सामान बांध ले| अब बहुत के हाथ
का खाना|”
“माँ क्यूँ बांधेंगी? मैं बांध देती
हूँ| आप लोग आराम करिए|” बहू का सेवभाव
अपनी पराकाष्ठा पर था|
गरीब की कुटिया में सामान ही कितना था| शाम तक दोनों
डोकरा-डोकरी अपने बेटे के घर पर रहने लगे| उनकी रोज़ सेवा-शुश्रूषा
होती| नाना प्रकार के व्यंजन बनाए जाते| रात को सोने से पहले
पैर भी दबाये जाते| रामपरसाद बहुत खुश था| अपने बच्चों में आए
इस हृदय परिवर्तन को देख कर वह गदगद था| उन्हें कोर्ट में घसीटने और उनकी
किरकिरी करने की बात वह भूल गया था| दमयंती पहले की तरह ही शांत थी| उसने अपनी दिनचर्या
पहले जैसी ही बना रखी थी| खाना बना बनाया मिलने की वजह से वह भी सुकून से कढ़ाई बुनाई
करती रहती| अपने जीविकोपार्जन का साधन उसने छोढ़ा नहीं था|
लगभग तीन महीने बाद बेटा और बहू रामपरसाद को समझा रहे थे| “बाबा, पड़ोस के गाँव में
एक एकड़ ज़मीन खरीद लेते हैं| ऐसे बैंक में पैसे रख के ब्याज ही तो मिल रहा है| उसकी क्या कीमत है| आप बैंक से पैसे निकलवा
के वह ज़मीन खरीद लो| बाद में बहुत फायदा होगा|” रामपरसाद को सुझाव
अच्छा लगा| उसको यह सुझाव भी अच्छा लगा कि भूमि बहू के नाम पे ले ले| क्या फरक पड़ेगा| खेती का पैसा तो घर
में ही आएगा| और बाद में तो सब बेटे बहू के ही नाम पे होना है| तो कागज-पतरी का झंझट
क्यूँ रखना| रामपरसाद को गर्व था कि उसका बेटा इतना बुद्धिमान है| उसने दमयंती से यही
बात कही|
दमयंती ने अपने पति की ओर देखा और तमतमाते हुए स्वर में कहा,”तू पैदा ही मूर्ख
हुआ था क्या डोकरा?”
रामपरसाद बिगड़ गया| उसे अपनी पत्नी से
ऐसे प्रत्युत्तर की आशा नहीं थी| फिर उसने दोनों को बुला लिया| और तीनों मिल के दमयंती
को भूमि खरीदने के लिए मनाने लगे| दमयंती ने सोचने के लिए तीन दिन का समय मांगा|
(तीन दिन बाद)
“माँ तुम कल शहर क्यूँ गयी थी? किसी को बताया भी
नहीं|” बेटे ने पूछा
“कुछ काम से गयी थी बेटा|” दमयंती बोली
“अच्छा ठीक है| तो ज़मीन खरीदने का क्या सोचा तुमने
माँ? देखो पैसे से पैसा बनाने की कला तुम्हें नहीं पता| मैं हमारे फ़ायदे की
ही बात कर रहा हूँ|” बेटा वित्तीय ज्ञान परोसने लगा|
“पैसे तो अब है नहीं बेटा| पैसे तो मैं कल एक
अनाथाश्रम को दे आई| मैं तो तुम लोगों के साथ जी लूँगी| उन बच्चों की कुछ
मदद हो गयी|” दमयंती ने मुस्कुराते हुए कहा|
“माँ यह क्या मज़ाक कर रही हो? किससे पूछ कर तुमने
इतना सारा पैसा दूसरे को दे दिया? तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है?”
“परसों सपने में रामजी आए थे| कह रहे थे कि यह पैसा तेरा नहीं है| बच्चों में दान कर दे| अब बेटा, राम ने एक हाथ दिया, दूसरे हाथ ले लिया| कोई बात नहीं बेटा| बहुत पुण्य मिलेगा| तुम नहीं चाहते तुम्हारी
माँ को पुण्य मिले?” दमयंती ने नाटकीय ढंग से पूछा|
इसके आगे जो भी हुआ, वह दमयंती पहले से
जानती थी| बेटे बहू का कोसना, चिल्लाना, अपशब्दों का प्रयोग| दमयंती चुपचाप बैठी
थी| मन ही मन मुस्कुरा रही थी|
2 घंटे बाद जब बेटा बहू थक गए, तब दमयंती उठी, और बोली “चल डोकरा
सामान बांध ले|”