Sunday, 19 July 2020

दमयंती


अरे रामपरसाद कौन है? काउंटर पर जल्दी आइये!कैशियर का स्वर तीखा था| उनकी झुंझुलाहट दिख पड़ती थी| रोज़ 400- 500 लोगों का काम निपटाने हेतु समय का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है| ऐसे में यदि कोई ग्राहक एक बार में ना पहुँचे, तो मैडम का अधीर हो जाना न्यायसंगत है| पर कैशियर मैडम इस बात से अंजान थीं कि रामपरसाद बहरा था| उसे कुछ भी सुनाई नहीं देता था| असल दोषी उसकी धर्मपत्नी थी – दमयंती| यह तो दमयंती का काम था कि कैशियर के बुलावे पर रामपरसाद को काउंटर तक ले कर जाये| अपने कर्तव्य को भूल कर दमयंती  वाटर कूलर पर पानी पीने चली गयी थी| दूसरी बार नाम सुन कर जल्दी जल्दी आई|

“रामपरसाद कौन है?” कैशियर मैडम ने एक महिला के आने की अपेक्षा नहीं की थी|

“रामपरसाद मेरा डोकरा है|” दमयंती ने अपने पति की ओर इशारा करते हुए कहा|

औपचारिकताएँ पूरी हो जाने पर दमयंती अपने पति के साथ पेंशन राशि प्राप्त कर वापस घर चली आई| दमयंती की दिनचर्या पति और खुद की देख रेख करने में ही बीत जाती थी| इस दंपती के पास आय का कोई विशेष साधन नहीं था| सरकारी पेंशन और दमयंती द्वारा सिलाई-बुनाई से की गयी कमाई ही इनके जीविकोपार्जन का स्त्रोत थी| रामपरसाद एक किसान हुआ करता था| बहुत धनाड्य तो नहीं था, लेकिन खाने पीने की कोई कमी नहीं रहती थी| उसने अपने बेटे की शादी करने के बाद अपने खेत खलिहान भी उसके नाम पर कर दिये, और एक दिन बेटे ने ही घर से निकाल दिया| दमयंती ने रामपरसाद को ऐसा करने से रोका था| उसे अपनी बहू के लक्षण सही नहीं लग रहे थे| उसका झगड़ालू  स्वभाव आए दिन परिवार में चिंता का कारण बनता था| ज़मीन की लड़ाई भी इसलिए शुरू हुई | रामपरसाद ने सोचा ज़मीन दे कर अगर घर में शांति आ जाए तो क्या बुरा है? दमयंती को यह बात ठीक नहीं लगी| उसने “डोकरे”को यह बात समझानी चाही कि बात खेत की नहीं बल्कि नीयत की है| रामपरसाद औरतजात की सोच से अनभिज्ञ नहीं था| उसे बचपन से ही समझाया गया था कि औरत की बात सुनने पर घर टूट जाएगा| सो उसने दमयंती की बात एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दी|  छह महीना साल भर होते होते दोनों घर से बाहर निकाल दिये गए| रामपरसाद बहुत क्रोधित हुआ, गालियां देने लगा, कोसने लगा, आस पड़ोस के लोगों को सुनाने लगा| दमयंती चुपचाप खड़ी थी| उसने इस दिन की अपेक्षा कर रखी थी| उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार की अशांति, क्रोध, विस्मय या दुख के भाव नहीं थे| उसने पति को ढान्ढस बँधाया और वहाँ से चलने को कहा| इस घटना को 10 साल हो गए| रामपरसाद अब बहुत बूढ़ा हो चुका है| अब उसकी सुनने की शक्ति भी जा चुकी है| फिर भी अपनी शेष ऊर्जा से आज भी अपने बहू बेटे को कोसता पाया जाता है| दिनभर हवा में गांठ बांधता रहता है| “उन लोगों को कोर्ट में घसीट दूंगा| समाज में ऐसी किरकिरी करूंगा कि चार लोग थूकेंगे| तू देखना दमयंती|” पर दमयंती ऐसा कुछ नहीं करती| उसने अपना भाग्य स्वीकार कर लिया| उसने सिलाई बुनाई से कुछ पैसे जुटाने शुरू किए और अपना और पति का सरकारी पेंशन का काम भी पूरा किया| दमयंती व्यावहारिक महिला है| उसे पता है कि बहू बेटे को कोसने से पेट नही पलेगा| इसलिए यह काम वह रामपरसाद को अकेले ही करने देती है| शुरूआत में अपने इस क्रोध पर अपनी पत्नी की ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर रामपरसाद चिढ़ जाता था, लेकिन अब उसने भी दमयंती का यह स्वभाव स्वीकार कर  लिया है| अब वह अकेले में ही बुदबुदाता रहता है| कुल मिला कर पैसों की तंगी होने के बाद भी दोनों पति-पत्नी एक स्तर पर संतुष्ट हैं| सच है, चाहे कितनी ही बड़ी विपत्ति हो, उसे स्वीकार कर लेने से समस्या की तीव्रता कम होने लगती है|

 “तुमको अपना ब्रांड मैनेजर बना कर मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी! तुम्हें 5 करोड़ का बजट दिया, इतनी बड़ी गारमेंट कंपनी का ब्रांड पहले से बना हुआ है| तुमने क्या किया??” तनेजा साहब का गुस्सा किसी से छुपा नहीं था| नीलिमा का उत्साह और उसकी प्रतिभा को देखते हुए उन्होंने उसे जल्दी प्रोमोट किया था| लेकिन आज यही पदोन्नति उन्हें बहुत खल रही थी|

“सर रिसेशन है| मंदी के दौर में उपभोक्ता बहुत सचेत हो जाते हैं| ब्रांडिंग से भी फर्क नहीं पड़ता|” नीलिमा ने नरम स्वर में कहा|

“अच्छी बात है| तब तो हमें तुम्हारी ज़रूरत ही नहीं| जब ब्रांडिंग का कोई असर ही नहीं होना तो उसके लिए अलग से एम्प्लोयी और बजट क्यूँ रखना|” तनेजा साहब ने तपाक से पलटवार किया|

“सर हम पूरी कोशिश कर रहे हैं|” नीलिमा की आँखें भीग गईं|

“नीलिमा तुम्हारा बजट अब 1 करोड़ है| और समय सिर्फ 10 दिन| अगर अगले 10 दिनों में तुमने कोई बड़ा ब्रेक-थ्रु नहीं दिया, तो अपना इस्तीफा दे देना|” तनेजा साहब का अल्टिमेटम आया|

“सर इस्तीफा?” नीलिमा के आँसू बेह निकले!

“यस! इस्तीफा! रेसिग्नेशन! त्यागपत्र! चाहो तो गूगल में और भी वर्ड्स ढूंढ लो|” कह कर तनेजा जी निकल गए| इतनी बड़ी कंपनी  का निदेशक होना कोई मामूली बात नहीं| दुनिया भर का दबाव रहता है| अब पूरा दबाव तो आप नहीं झेल सकते| इसलिए उस दबाव का एक सूक्ष्म हिस्सा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर पटकना ही उचित है|

नीलिमा का घर आ के बुरा हाल था| चुपचाप बैठी थी| खाने पीने से कोई मतलब नहीं| वह शून्य में निहार रही थी| उसके ऊपर भी नाना प्रकार के उत्तरदायित्व  थे| छोटी बहन निशि की पढ़ाई लिखाई की भी चिंता थी|  निशि को भी अपनी बड़ी बहन का यह हाल देख कर दुख हो रहा था| वह नीलिमा के पास आई और उसे गाँव से लायी हुई टेबल कवर दिखने लगी| “देखो दीदी| इतनी सुंदर एंब्रोईडरी है| हम गांव गए थे तो वहाँ एक आंटी बनाती हैं| उन्हीं से खरीदे! बस 100 रुपये में|

दमयंती कपड़ों पर कलाकृतियाँ बनाने में दक्ष थी| गाँव के लोग भी उसके इस गुण की तारीफ करते थे| शहर से आए हुए अपने महमानों को उपहार  स्वरूप वे यही दिया करते थे| कभी रूमाल, कभी पर्दे तो कभी कुछ और| अन्य उपहारों की तुलना में यह भेंट कुछ सस्ती ही पड़ती थी| शहर निवासी भी इन कला-कृतियों को “हैंड-मेड क्राफ्ट्स” के कैप्शन के साथ इंस्टाग्राम पर अपलोड करते और वाह वाही बटोरते| हल्दी लगे न फिटकिरी, रंग चोखा! गाँव वाले भी खुश, और उनके रिश्तेदार भी|

नीलिमा को कुछ सूझा! वह अगले ही दिन दमयंती से मिलने पहुंची| उसे दमयंती का काम बहुत पसंद आया| उसने तुरंत अपने बॉस को कॉल किया|

“सर मुझे एक ब्रेक-थ्रू मिल गया है|

बस फिर क्या था| महिला-सशक्तिकारण, स्वदेशी विकास और हस्त-कला जैसे शब्दों का प्रयोग कर तनेजा साब और नीलिमा ने हल्ला मचा दिया| प्रिंट, इलेक्ट्रोनिक और सोशल मीडिया पर, हर जगह वह फुटेज चलने लगी जहां तनेजा साहब दमयंती को दस लाख का चेक़ देते हुए दिख रहे हैं| सी-एस-आर भी, ब्रांडिंग भी| और यह सब बजट के सिर्फ 10 परसेंट में| नीलिमा को शाबाशी के साथ साथ बोनस भी मिल गया| तनेजा साहब के लिए 10 लाख कुछ भी नहीं थे, पर दमयंती ने तो पूरे जीवन काल में इतनी धनराशि नहीं देखी थी| उसे बहुत खुशी हुई| रामपरसाद भी बहुत खुश हुआ|

2 लोग और थे जिनको खुशी हुई| दमयंती के बेटे और बहू को अचानक अपनी गलती का एहसास होने लगा| वे दमयंती और रामपरसाद को लेने आए और पैरों में गिर गए|

“अपने माँ बाप को बाहर निकाल कर मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है| आप दोनों वापस चलिये और हमारे साथ रहिए| इस पाप का प्रायश्चित यदि मैंने नहीं किया, तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी |” बेटा पश्चाताप करने लगा|
“असली दोष तो मेरा है| पता नहीं कौन से पुण्य किए होंगे पिछले जनम में जो ऐसी सास मिली| और मैं उन्हें ही भला बुरा कहती रही| अब अगर आजीवन आपको खाना न खिलाऊँ और आपकी सेवा न करूँ, तो नरक भोगूँ|” बहू भी रोने लगी|
रामपरसाद दोनों को कोसने लगा| “अब पैसा आया है तो सेवा करने आए हो| कितने नीच हो तुम दोनों| निकल जाओ मेरे घर से|"

“हमें कुछ नहीं चाहिए बाबा! आप बस घर चलो| माँ बाप तो अपने बच्चों की गलतियाँ माफ कर ही देते हैं|

दमयंती पास में खड़ी सब देख रही थी| उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी| बहुत अनुनय-विनय करने के बाद रामपरसाद मान गया| कहने लगा, “तुम लोगों इतना बोल रहे हो इसलिए मान रहा हूँ| वरना मैं कभी नहीं आता| चल दमयंती, सामान बांध ले| अब बहुत के हाथ का खाना|

“माँ क्यूँ बांधेंगी? मैं बांध देती हूँ| आप लोग आराम करिए|” बहू का सेवभाव अपनी पराकाष्ठा पर था|

गरीब की कुटिया में सामान ही कितना था| शाम तक दोनों डोकरा-डोकरी अपने बेटे के घर पर रहने लगे| उनकी रोज़ सेवा-शुश्रूषा होती| नाना प्रकार के व्यंजन बनाए जाते| रात को सोने से पहले पैर भी दबाये जाते| रामपरसाद बहुत खुश था| अपने बच्चों में आए इस हृदय परिवर्तन को देख कर वह गदगद था| उन्हें कोर्ट में घसीटने और उनकी किरकिरी करने की बात वह भूल गया था| दमयंती पहले की तरह ही शांत थी| उसने अपनी दिनचर्या पहले जैसी ही बना रखी थी| खाना बना बनाया मिलने की वजह से वह भी सुकून से कढ़ाई बुनाई करती रहती| अपने जीविकोपार्जन का साधन उसने छोढ़ा नहीं था|

लगभग तीन महीने बाद बेटा और बहू रामपरसाद को समझा रहे थे| “बाबा, पड़ोस के गाँव में एक एकड़ ज़मीन खरीद लेते हैं| ऐसे बैंक में पैसे रख के ब्याज ही तो मिल रहा है| उसकी क्या कीमत है| आप बैंक से पैसे निकलवा के वह ज़मीन खरीद लो| बाद में बहुत फायदा होगा|” रामपरसाद को सुझाव अच्छा लगा| उसको यह सुझाव भी अच्छा लगा कि भूमि बहू के नाम पे ले ले| क्या फरक पड़ेगा| खेती का पैसा तो घर में ही आएगा| और बाद में तो सब बेटे बहू के ही नाम पे होना है| तो कागज-पतरी का झंझट क्यूँ रखना| रामपरसाद को गर्व था कि उसका बेटा इतना बुद्धिमान है| उसने दमयंती से यही बात कही|

दमयंती ने अपने पति की ओर देखा और तमतमाते हुए स्वर में कहा,”तू पैदा ही मूर्ख हुआ था क्या डोकरा?”

रामपरसाद बिगड़ गया| उसे अपनी पत्नी से ऐसे प्रत्युत्तर की आशा नहीं थी| फिर उसने दोनों को बुला लिया| और तीनों मिल के दमयंती को भूमि खरीदने के लिए मनाने लगे| दमयंती ने सोचने के लिए तीन दिन का समय मांगा|

(तीन दिन बाद)

“माँ तुम कल शहर क्यूँ गयी थी? किसी को बताया भी नहीं|” बेटे ने पूछा

“कुछ काम से गयी थी बेटा|” दमयंती बोली

“अच्छा ठीक है| तो ज़मीन खरीदने का क्या सोचा तुमने माँ? देखो पैसे से पैसा बनाने की कला तुम्हें नहीं पता| मैं हमारे फ़ायदे की ही बात कर रहा हूँ|” बेटा वित्तीय ज्ञान परोसने लगा|

“पैसे तो अब है नहीं बेटा| पैसे तो मैं कल एक अनाथाश्रम को दे आई| मैं तो तुम लोगों के साथ जी लूँगी| उन बच्चों की कुछ मदद हो गयी|” दमयंती ने मुस्कुराते हुए कहा|

“माँ यह क्या मज़ाक कर रही हो? किससे पूछ कर तुमने इतना सारा पैसा दूसरे को दे दिया? तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है?

“परसों सपने में रामजी आए थे| कह रहे थे कि यह पैसा तेरा नहीं है| बच्चों में दान कर दे| अब बेटा, राम ने एक हाथ दिया, दूसरे हाथ ले लिया| कोई बात नहीं बेटा| बहुत पुण्य मिलेगा| तुम नहीं चाहते तुम्हारी माँ को पुण्य मिले?” दमयंती ने नाटकीय ढंग से पूछा|

इसके आगे जो भी हुआ, वह दमयंती पहले से जानती थी| बेटे बहू का कोसना, चिल्लाना, अपशब्दों का प्रयोग| दमयंती चुपचाप बैठी थी| मन ही मन मुस्कुरा रही थी|

2 घंटे बाद जब बेटा बहू थक गए, तब दमयंती उठी, और बोली “चल डोकरा सामान बांध ले|