Sunday 21 September 2014

किसकी भाषा?

कुछ दिन पहले (14 सितम्बर) हिंदी दिवस था| हो सकता है आपको पता ना चला हो| क्या है की हिंदी दिवस की लोकप्रियता लव डे, रोज़ डे इत्यादि से कुछ कम है| ना कोई टेलीकोम कंपनी ने इसके लिए कोई विशेष ऑफर्स जारी किये, ना इस उपलक्ष्य पर कोई चाकलेट का डिब्बा विशेष तौर पर निकाला गया| कहने का मतलब है की मार्केटिंग नहीं हुई| खैर, कोई बात नहीं, यह सब तो अपेक्षित ही था| मैंने भी परम्परागत तौर पर हिंदी की वर्तमान परिस्थिति पर अपने विचार फेसबुक पर व्यक्त किये| पिछले दो-तीन वर्षों से मेरे परम्परागत पोस्ट पर कुछ परंपरागत टिप्पणियाँ आ रही हैं| पिछले वर्ष एक घनिष्ठ मित्र (कटाक्ष-युक्त) ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित करने की कोशिश की, कि मैं भाषायी चरमपंथी (extremist) की तरह बरगला रहा हूँ| आगे यह कहा कि हिंदी भाषी बहुत ही असुरक्षित (insecure) होते हैं| उन्हें और कोई भाषा बर्दाश्त नहीं, और वह दूसरों पर हिंदी को थोपने का प्रयास करते हैं| यहाँ तक उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी दिवस मनाने में सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए| मैंने उन्हें भारत सरकार की "संस्कृति मंत्रालय" का महत्व समझाने का प्रयास किया, पर मतवाले हाथी को समझाने बुझाने का प्रयास करने से क्या फायदा, वह तो विध्वंस मचायेगा ही| अतः उस बुद्धजीवी को मैंने प्रणाम किया, और चुपचाप, बिना चेतावनी दिए उस चर्चा से खिसक लिया| यह बहुत मायने रखता है कि आप जिससे तर्क-वितर्क कर रहे हैं, वह किस तरह का व्यक्ति है| यदि सही समय पर आपने निर्णय नहीं लिया, तो वह सज्जन आपको शर्मिंदगी के दलदल में डुबो डुबो के मारेगा|

आगे बढते हैं| इस वर्ष मैंने कुछ यों लिखा कि हिंदी मेरा स्वाभिमान है| इस पर मेरे एक घनिष्ठ मित्र (कटाक्ष-मुक्त) को आपत्ति हो गयी| उन्होंने मुझे याद दिलाया की भारत में अनेक भाषाएँ हैं, और वे सभी उनके स्वाभिमान का कारण है| मैंने यह भी लिखा की अंग्रेजी के चलन में होने से हिंदी को निम्न दर्जे की भाषा माना जाने लगा है| इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी की अंग्रेजी का भी बराबर से सम्मान हो| आगे कमेन्टबाजी में उन्होंने यह मानने से भी इनकार कर दिया कि हिंदी के साथ किसी प्रकार का अन्याय होता भी है| मेरे यह मित्र मेरे सहपाठी भी रहे हैं| उन्हें संभवतः स्मरण नहीं कि हमारे स्कूल में हिंदी बोलने पर ना केवल मनाही थी, बल्कि हिंदी बोलने पर सजा का भी प्रावधान था| मेरे ज्ञान में और कोई देश ऐसा नहीं जहां के विद्यालय अपनी ही देश की किसी प्रचलित भाषा के बोलने पर दंड देते हों| यदि इस व्यवहार को आप हिंदी का तिरस्कार नहीं मानेंगे, तो फिर आपको अपना नजरिया समझाना मेरे बस का नहीं|

भारतीय संविधान ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया है| संविधान के लागू होते वक्त यह तय हुआ था की 1965 तक हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाएँ आधिकारिक मानी जाएँगी, और उसके बाद हिंदी को पूरे देश में लागू किया जायेगा| 1965 आते आते परिस्थिति अपेक्षा से कोसों दूर थी| देश की क्षेत्रिय भाषाओँ (विशेषकर तमिल) को अपनी अपनी अस्मिता की चिंता हो चली| धरना, भूख हड़ताल वगैरह भी हुआ| परिणामस्वरूप, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार त्याग दिया गया| इतिहासकारों की मानी जाये तो इसके लिए कहीं ना कहीं हिंदी चरमपंथी ज़िम्मेदार थे| उन्होंने क्लिष्ट हिंदी (शुद्ध हिंदी) वाले घमंड को काफी थोपने का प्रयास किया, और इसी कारण उन्हें ज़बरदस्त विद्रोह का सामना करना पड़ा| अभी कुछ दिन पहले भी ओडिशा के किसी विधायक ने कहा, या तो अंग्रेजी में बोलिए या ओडिया में, लेकिन हिंदी में नहीं| तो पिछले चालीस वर्षों में कितना बदलाव आया है? हर क्षेत्र की अपनी भाषा है, और क्षेत्रिय लोग उस भाषा के सम्मान की चिंता कर लेते हैं (कम से कम जब हिंदी से चुनौती मिलती है तब)| अंग्रेजी का सम्मान तो कोने कोने में है| भारत के किसी भी क्षेत्र में अग्रेजी को दोयम दर्जा प्राप्त नहीं है| अब बची हिंदी| बेचारी निरीह भाषा| कहने को तो 40% भारतीय इसका इस्तेमाल करते हैं, पर अपनाता कोई नहीं| अंग्रेजी बोलते लोगों से प्रभावित होना मानो एक कानून हो| किसी सरकारी दफ्तर में अंग्रेजी में अर्जी देने से असर ज्यादा होता है| पुलिसवाला अंग्रेजी बोलने वालों से थोडा विनम्र पेश आते हैं (वैसे रिश्वत उनसे भी लेते हैं| अतः उस मामले में भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता|) तो हिंदी सबकी हो कर भी किसी की नहीं है| आपको एक किस्सा सुनाता हूँ| एक सोफिस्टिकेटेड मित्र ने मुझे एक दिन हिंदी का कोई लेख पढते देख लिया| तो उन्होंने एक मन भयभीत कर देने वाला प्रश्न पूछ डाला, "यार तू हिंदी पढ़ कैसे लेता है?"| कुछ समय के लिए मै स्तब्ध रह गया, समझ ही नहीं पाया क्या जवाब दूँ| थोडा संभल कर मैंने कहा, "भाई मेरी अपनी भाषा है| मुझे क्यों परेशानी होगी पढ़ने में|" ये मान्यवर उस प्रांत से हैं जहां हिंदी काफी प्रचलित है| आशा करता हूँ मेरे घनिष्ठ मित्र को अब थोडा आभास हो रहा होगा कि हिंदी अब किस परिस्थिति में पहुँच गयी है|

भारत अनेकों भाषाओँ का देश है, और मुझे इस बात पर गर्व है| पूरी दुनिया के लिए यह एक मिसाल है कि एक ही देश में इतनी सारी भाषाएँ बोली जाती हैं| संविधान में ही 22 भाषाओँ को स्थान दिया गया है| मैं यह भी मानता हूँ कि इन सारी भाषाओँ का संरक्षण होना चाहिए, ताकि हमारी परंपरा का संरक्षण हो सके| पर मैं यह मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं हूँ कि हिंदी बोलने से किसी भी भाषा की अस्मिता को हानि पंहुचेगी| साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि एक भाषा यदि पूरे देश को जोड़े, तो यह बहुत ही उत्तम परिस्थिति होगी| क्या यह कर पाना संभव है? मै भिलाई (छत्तिसगढ़) से हूँ| मेरे शहर में अनेक भाषा बोलने वाले लोग हैं| और मैंने उन सभी लोगों को हिंदी और अपनी प्रांतीय भाषा दोनों ही बोलते देखा है| इस कारण से यहाँ तमिल, तेलुगु, मलयालम, बंगाली, गुजराती, मराठी आदि सभी भाषा बोलने वाले मिलते हैं| ये लोग हिंदी भी बहुत प्रेम से बोलते हैं| इसलिए मेरे लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल है कि भारत में एक राष्ट्र व्यापी भाषा का होना संभव नहीं| जीवंत उदाहरण के ऊपर किसी आधारहीन भय को प्राथमिकता देना मुझे समझदारी नहीं लगती| इसलिए यदि प्रयास किये जाएँ, तो यह भाषा सबकी लाडली बन सकती है| वामपंथी मतवालों से लड़ना तो होगा, पर खैर, उनसे तो कदम कदम पर लड़ना है| ऐसा देश जहां इतनी भाषाएँ जनता का पालन पोषण करती हैं, उस देश को देश व्यापी भाषा कहीं बाहर से उधार लेनी पड़े, यह कुछ जंचता नहीं| कॉमन सेन्स इसकी इजाज़त नहीं देता| और असल में ये इतना मुश्किल भी नहीं| मै फिलहाल हैदराबाद में रहता हूँ| वैसे तो यहाँ काफी हिंदी भाषी हैं, पर ऐसे लोग भी हैं जिन्हें सिर्फ़ तेलुगु का ही ज्ञान है| ऐसे लोगो के लिए मै तेलुगु सीखने का प्रयास करता हूँ, और वे लोग मुझसे हिंदी में बतियाने का प्रयास करते हैं| परस्पर सम्मान और स्नेह से दोनों भाषाएँ हमें जोड़ती हैं| मुझे तो इसमें कहीं भी अस्मिता को नुकसान नहीं दिखता| नज़रिए नज़रिए में फर्क है जनाब|

एक आखरी पहलू बचता है, दुनिया से जुड़ने का| बड़ी चतुराई से यह भ्रान्ति फैलाई गयी है कि दुनिया से जुड़ने के लिए अंग्रेजी सीखना अत्यंत आवश्यक है| कुछ हद तक सही भी है, लेकिन इसके चलते अंग्रेजी को सर चढाने की मूर्खता भी हम कर बैठे हैं| मेरा विरोध मुख्यतः इसी बात को लेकर है| मै एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता हूँ, और हमें भांति भांति के देशों के नागरिकों से बात करने का अवसर मिलता है| मैंने कई लोगों को देखा है जिन्हें अंग्रेजी का उतना ज्ञान नहीं, कुछ को तो बिलकुल नहीं| पर काम तो फिर भी होता है, संपर्क तो फिर भी बनता है| विश्व के सभी प्रमुख देश अपनी ही भाषा को प्राथमिकता देते हैं| अंग्रेजी केवल संपर्क साधने के लिए एक माध्यम का काम करती है| यह बात भारत समझ नहीं पाया और भारत की प्राथमिकताएं उथल-पुथल हो गयीं| परिणामस्वरूप, आज हमारे देश में मुख्यतः हिंदी भाषी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर औसत से बहुत नीचे है| ऑस्ट्रेलिया में हिंदी पढाने के निर्णय से और विश्व हिंदी सम्मलेन के हर वर्ष आयोजित होने से कुछ उम्मीद ज़रूर बंधती है| पर मूलभूत कार्य है, हिंदी को उसका सम्मान देना| यह हम पर उधार है| संभव है, भारत जैसे राष्ट्र की आतंरिक शक्ति से आज थोड़े से सम्मान को तरस रही भाषा, कल को विश्व भाषा बने! और यदि भारतीय प्रधानमंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ की सभा को हिंदी में संबोधित करें, तो लोगों को आश्चर्य नहीं, गर्व हो|
                                                                         जय हिंद|