Thursday 20 March 2014

अमर्त्य सेन बनाम जगदीश भगवती = कांग्रेस बनाम मोदी?

इस लेख के शुरुआत में ही मैं बता देना चाहता हूँ कि साम्प्रदायिक ताकतों और सेकुलर योद्धाओं, दोनों को ही यह लेख पढ़ कर निराशा होगी| इस लेख को मैं केवल अर्थव्यवस्था की दृष्टि से लिख रहा हूँ| इसलिए दोनों ही वर्गों से माफ़ी चाहता हूँ| वैसे भी सर, आप लोगों के लिए मटेरियल कि कौन सी कमी है मार्केट में जो इस गरीब आदमी के लेख पर निर्भर होने कि ज़रूरत पड़े|
यदि शीर्षक से यह साफ़ नहीं हुआ हो, तो मैं बताना चाहता हूँ कि इस लेख में मैंने दो महान अर्थ-शास्त्रियों के विचारों पर प्रकाश डालने कि कोशिश की है| मीडिया में हल्ला है कि एक महोदय कि विचारधारा कांग्रेस से मिलती है और दूसरे “गुजरात मॉडल” को उपयुक्त बताने का दावा करते हैं| वैसे, इसमें कोई शक नही कि इन दो प्रबुद्ध मनुष्यों को एक दूसरे के विचार खिन्न कर देते हैं, किन्तु इस कांग्रेस बनाम मोदी वाली थियोरी को दोनों सिरे से नकार देते हैं| मीडिया की भी मजबूरी है भाई-साहब| यदि वे लोग इन विचारों को चुनावी या सियासी दंगल के सांचे में ढाल कर ना दिखाएँ, तो आप लोग क्या ख़ाक दिलचस्पी लेंगे?

खैर, अब मुद्दे कि बात करते हैं| अभी अभी मैंने भगवती जी का एक लेख पढ़ा जिसमे उन्होंने “ट्रैक वन” और “ट्रैक टू” आर्थिक सुधारों कि बात बतलाई| ट्रैक वन का मतलब “ग्रोथ” वाले सुधार| मतलब यह FDI टाइप के| ज्यादा निवेश करना, व्यापर को बढ़ावा देना इत्यादि| साधारण शब्दों में, ट्रैक वन सुधारों का उद्देश्य होता है ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना| हमारे देश में 1991 में नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह द्वारा लाए गए आर्थिक सुधारों को ट्रैक वन कि श्रेणी में रखा जा सकता है| वामपंथी दल (लेफ्ट पार्टियां) इन सुधारों को पाप मानते हैं और इसे संपन्न वर्ग कि साजिश बताते हैं| वहीँ ट्रैक टू सुधारों का मुख्य उद्देश्य (कथित तौर पर) सामजिक उत्थान होता है| इन सुधारों में बनायीं गयी नीतियों का लक्ष्य भ्रष्टाचार गरीबी-उन्मूलन होता है| इसमें आम-तौर पर सब्सिडी का बोलबाला रहता है| हाल ही में लाया गया “फ़ूड सिक्युरिटी बिल” इसका एक उत्तम उदाहरण है| इन्हीं दो ट्रेकों के द्वंद्व को “ग्रोथ बनाम डेवेलपमेंट” की संज्ञा दी जाती है| ट्रैक वन ग्रोथ का परिचायक माना जाता है, वहीँ ट्रैक टू डेवेलपमेंट का| हालांकि दोनों अर्थ-शास्त्री मानते हैं कि किसी भी अर्थ-व्यवस्था को इन दोनों कि ही ज़रूरत होती है, फिर भी अमर्त्य सेन का झुकाव ट्रैक टू पर ज्यादा है, जबकि जगदीश भगवती का ट्रैक वन पर|

सेन का कहना है कि वे इस देश में शिक्षित और स्वस्थ मजदूर (educated and healthy labour) देखना चाहते हैं| मेरे इंजिनियर, डॉक्टर, वकील टाइप के दोस्त बुरा ना मानें| अर्थ-शास्त्र कि भाषा में जो भी मेहनत कर के आजीविका कमाए उसे मजदूर कहते हैं| तो खैर, सेन साहब का मानना है कि किसी भी अर्थ-व्यवस्था में ऐसी परिस्थिति रहने से उसका विकास बहुत तेजी से होता है| इसी कारण से गुजरात के आर्थिक विकास होने के बावजूद उन्होंने “गुजरात मॉडल” को नकार दिया है| कारण यह कि गुजरात में मानव विकास के मानक (Human Development Indicators) बेहद साधारण हैं, बल्कि कई मानक तो राष्ट्रीय औसत से भी खराब हैं| इनमें कुपोषण, शिशु-मृत्यु दर, अनीमिया से ग्रस्त कन्याएँ जैसे मानक प्रमुख हैं| इस समय सामजिक मानकों के हिसाब से गुजरात का स्थान 10वां बताया जाता है (स्त्रोत: टाइम्स ऑफ इण्डिया)| अमर्त्य सेन साफ़ कह चुके हैं कि वे नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बनता नहीं देखना चाहते|

जगदीश भगवती भी मानते हैं कि सामजिक विकास ज़रुरी है और लोगों का शिक्षित और स्वस्थ होना भी ज़रुरी है, लेकिन साथ ही वे यह प्रश्न भी उठाते हैं कि इन सब के लिए पैसा कहाँ से आएगा| उनके मुताबिक़ ट्रैक टू सुधारों के लिए पहले ट्रैक वन सुधारों को अपना कर संसाधन जुटाना ज़रुरी है| उनका तो यहाँ तक कहना है कि अमर्त्य सेन ने भारत के गरीबों के साथ दो बार अन्याय किया है| एक बार 1991 से पहले की नीतियों का समर्थन कर और अब इस “फ़ूड सिक्युरिटी बिल” को समर्थन देकर| उन्होंने अमर्त्य सेन को आमने सामने वाद विवाद की खुली चुनौती भी दे डाली है, जिसे श्री सेन ने अब तक स्वीकार नहीं किया है| भारत की वर्तमान आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए श्री भगवती कहते हैं कि यह बिल संसाधनों पर ज़बरदस्त दबाव डालेगा और इससे महंगाई और बढ़ जायेगी जिससे तकलीफ अंततः गरीबों और आम आदमी को ही होगी| हालांकि भगवती कह चुके हैं कि उन्हें ना मोदी से प्रेम है ना राहुल गाँधी से, लेकिन गुजरात मॉडल कि खुली तारीफ़ करने कि वजह से उन्हें मोदी का अप्रत्यक्ष समर्थक बताया जाता है|

एक और अल्प-ज्ञानी, बडबोले, स्व-घोषित अर्थशास्त्री कि मानी जाये तो समाधान (हमेशा कि तरह) बीच में है| बड़बोला कहता है कि इस वक्त भारत में युवाओं की जनसख्या काफी अधिक है और इस समूह का शिक्षित और स्वस्थ होना बहुत ज़रुरी है, लेकिन भारत कि वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए इसे तुरंत कर पाना संभव नहीं दिखता| वहीँ इसे कई वर्षों तक टालने से समस्या बहुत ही भयावह रूप ले सकती है| बड़बोला यह सुझाव देता है कि इस देश कि आर्थिक नीति का अंतिम उद्देश्य यह होना चाहिए कि किसी भी नागरिक को भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए अपनी आमदनी पर पूरी तरह निर्भर ना होना पड़े| इसलिए यह बहुत ज़रुरी है कि ट्रैक वन और ट्रैक टू सुधारों के बीच एक संतुलन बना रहे| अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ट्रैक वन का सहारा लेते हुए जल्द से जल्द ट्रैक टू की तरफ मुडना ज़रुरी है| यदि “विकास पुरुष” के शासन में कुपोषण जैसी समस्याओं का समाधान नहीं निकला, तो ऐसा विकास ज्यादा दिन तक सुख नहीं देने वाला| वहीँ यदि कांग्रेस ने अपनी निवेश ना कर पाने कि अक्षमता को जारी रखा तो मनरेगा और फ़ूड सिक्युरिटी जैसे वोट-लुभावन जन-कल्याण नीतियों को  कूड़ेदान में जाने में समय नहीं लगेगा| अभी कुछ दिन पहले ही फिस्कल डेफिसिट को काबू में लाने के लिए (पैसा बचाने के लिए) श्री चिदंबरम ने मनरेगा के बजट में कटौती कर डाली थी| इन्ही कारणों से बड़बोला इस नीति-द्वंद्व को इतनी सरलता से नहीं देखता| दोनों ही नीतियों/नेताओं की अपनी-अपनी कमियां हैं| वैसे यह बड़बोला संयोग से इस लेख का रचयिता भी है| उम्मीद करता हूँ कि इस लेख को पढ़ने वाली जनता अपना वोट तय करने से पहले इन बातों को ध्यान में रखेगी| जय हिंद|

Saturday 8 March 2014

नारियल पानी बेचने वाला अमीर

यहाँ हैदराबाद में मेरे घर के नज़दीक एक वृद्ध व्यक्ति नारियल पानी बेचते हैं...बहुत ही साधारण सा ठेला है...नारियलों की संख्या भी कोई बहुत ज्यादा नहीं रहती| कहने का मतलब यह है कि जनाब की आमदनी कोई बहुत ज्यादा नहीं है| कुछ हफ्ते पहले मै अपने दो दोस्तों के साथ उनके ठेले पर नारियल पानी पीने पहुंचा...उन्होंने तीन के बजाये चार नारियल दे दिए...मैंने कहा कि हमने केवल तीन ही मांगे थे...तो उन्होंने कहा ले लो....गौर करने कि बात ये है कि वो एक्स्ट्रा नारियल उन्होंने मुझे दिया...हमें लगा या तो अंकल मूड में हैं या ये कोई जनरल ऑफर है...तीन पे एक फ्री जैसा कुछ| इसके बाद अगले हफ्ते मै फिर गया और फिर से अंकल ने मुझे एक एक्स्ट्रा नारियल दे दिया...अबकि बार मैंने दोनों नारियल के पैसे देने का प्रयास किया...किन्तु उन्होंने उस एक्स्ट्रा नारियल का पैसा नहीं लिया...मैंने पूछा ये फ्री का नारियल किसलिए...तो सिर्फ़ मुस्करा दिए...कुछ बोले नहीं...घर वापस आ कर मैंने दोस्तों से ये बात साझा की तो उन परम ज्ञानी पुरुषों ने बॉलीवुड की थियोरी दे डाली..अबे तुझमे उनको अपना कोई खोया हुआ बेटा दिखता होगा..ये सिलसिला यहाँ नहीं रुका...अगले हफ्ते तीसरी बार मुझे एक्स्ट्रा फ्री का नारियल मिला...तब मुझे भी इस थियोरी पर यकीन होने लगा...मैंने तुरंत पूछा...क्यों अंकल..फ्री में क्यों...लेकिन फिर उन्होंने जवाब नहीं दिया...और पैसे देने पर भी नहीं लिए...मै सोचने लगा की दूसरों के लिए कुछ भी करने के लिए दिल बड़ा होना चाहिए...पैसे कम ज्यादा होने से फर्क नहीं पड़ता...बात सच ही है...वरना क्यों ये बूढा इंसान मुझे मुफ्त का नारियल पानी पिला रहा है...ये मुमकिन है कि मेरे हफ्ते भर कि कमाई इसकी मासिक आमदनी से भी ज्यादा होगी...पर फिर भी ये इंसान स्नेह से मुझे फ्री का नारियल दे देता है.....इससे उसे खुशी मिलती होगी...जो वाकई उसे पैसे से ज्यादा कीमती दिखाई पड़ती है...हम तो हज़ारो-लाखों कमा कर भी दूसरों के लिए कुछ नहीं करते...हिंदू धर्म में दानवीर कर्ण का पात्र मशहूर है...इस्लाम में ज़कात (चैरिटी) करना अनिवार्य है...पर मदद करते वक्त सबकी मजबूरियाँ निकल आती हैं...जिस वजह से ये काम नहीं हो पाता...सोचता हूँ उस नारियल पानी वाले की भी कोई मजबूरी रही होगी...या परमात्मा ने उसे इतना किस्मत वाला बनाया है कि उसकी कोई मजबूरी ही नहीं...खैर, उस वृद्ध को देखकर मुझे ज़बरदस्त प्रेरणा मिली...कल ही मैंने उन्हें दो फाइव-स्टार की चोक्लेट्स दी...जिसे उन्होंने खुशी खुशी स्वीकर कर लिया...(हाँ मुझे पता है ये मूर्खतापूर्ण गिफ्ट था...पर गिफ्ट देने के मामले में मैं हूँ ही मूर्ख)...अब जीवन पर्यंत मै इस नारियल पानी वाले अमीर आदमी से प्रेरणा लेता रहूँगा...हो सके तो आप भी ले लीजिए...किसी दूसरे के लिए कुछ करने से जो आनंद मिलता है...उसका कोई सानी नहीं|