Sunday, 24 March 2019

अन बन

विशाल घर पर पहुंचा तो शीला टीवी देख रही थी| वह चिढ़ गया| यह हमारा नैसर्गिक गुण है कि जिससे हम नाराज़ हैं, उसकी खुशी या सुख शांति हमसे बर्दाश्त नहीं होती| हम चाहते हैं कि जिस कुंठा ने हमें ग्रसित कर रखा है, वैसी ही कोई भावना उस व्यक्ति को भी प्रभावित करे जिससे हमारी अनबन है, और जब मामला धर्मपत्नी का हो, तब तो बात और सिरियस हो जाती है| यह तनाव का माहौल एक हफ्ते से घर में बना हुआ था| एक हफ्ते पहले विशाल ने अपने औफिस में टीम मैनेजर  द्वारा फटकार लगाने की बात शीला को बताई थी| शीला ने अपनी माँ को यह बात बता कर अपना परंपरागत कर्तव्य पूरा किया| वह दांपत्य जीवन की निजता जैसे विषयों से अनभिज्ञ थी| वह बचपन से हर बात अपनी माँ को बताते आई थी| विवाह हो जाने के उपरांत इसमे कोई बदलाव उसे ज़रूरी नहीं लगा| लेकिन विशाल को यह बात चुभ गयी| उसकी सास ने बकायदा फोन कर के अपनी सहानुभूति प्रकट की; किन्तु यह सहानुभूति उसके घाव पर मलहम के बजाए मिर्ची जैसी रगड़ रही थी| फोन रखते ही वह शीला पर बरस पड़ा, “तुम्हें क्या ज़रूरत थी यह बात अपनी माँ से कहने की? ज़रूरी है कि मैं तुमसे जो भी कहूँ, वह तुम अपनी माँ को आगे कह दो?
शीला स्तब्ध रह गयी| उसने पहले भी अपनी माँ को कई चीज़ें बताई थीं लेकिन विशाल ने ऐसी प्रतिक्रिया पहली बार दी थी| पति के अपमान की बात मायके तक पहुँच गयी, तो इसमे ऐसा कौन सी आफत आ गयी? दोनों में भरपूर बहस हुई| उस रात दोनों ने भोजन नहीं किया|
विशाल बहुत दुखी था, उसके आत्म-सम्मान को गहरी चोट पहुंची थी| जब तक शीला अपने इस अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा नहीं मांगती, तब तक वह उससे बात भी नहीं करने वाला था| कुछ ज़्यादा नहीं, बस माफी मांग ले और कह दे कि आगे से कभी ऐसा नहीं करेगी| पति-पत्नी की बात बाहर नहीं जाएगी, तो वह उसे माफ करने को तैयार था| शीला अलग ही दुनिया में थी| उसका आज औफिस में मन नहीं लग रहा था| वह यह बात भूल नहीं पा रही थी कि उसके पति ने उसके साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया| अगर आराम से ही कह देते, तो क्या मैं मना कर देती? मुझे क्या खुशी मिलती है उनको दुख पहुंचा के? शीला को उम्मीद थी कि विशाल इस वक़्त गुस्से में हैं, और गुस्सा उतरते ही वे आ कर उससे माफी मांगेंगे और फिर शीला खुद माफी मांगेगी और विशाल के लिए गाजर का हलवा भी बनाएगी| यह बता पाना मुश्किल है कि इवोल्यूशन के किस दौर में महिलाओं ने यह भाँप लिया कि स्वादिष्ट भोजन परोस कर पुरुषों से लगभग हर बात मनवायी जा सकती है, किन्तु यह सत्य अवश्य है और व्यावहारिक भी| इस बात का पुरुष समाज को भी आभास है, लेकिन इसका कोई विशेष समाधान उनके पास नहीं है|
आपने अंदाज़ा लगा लिया होगा कि उसी रात विशाल और शीला में द्वितीय युद्ध हुआ| इस बार छींटाकशी कुछ ज़्यादा हो गयी| दोनों ऐसी बातें भी बोल गए जो उनके सम्मानित संबंधी पीठ पीछे बोलते थे| क्रोध को कुछ सोचकर ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु कहा गया है| आप वह सब कुछ बोल जाते हैं या कर जाते हैं जो आप बोलना या करना नहीं चाहते| बात बहुत बिगड़ गयी| शीला यदि गृहणी होती, तो अब तक मायके जाने की तयारी शुरू कर चुकी होती| किन्तु नौकरी करता व्यक्ति जो वेतन कमाता है, उसके बदले कुछ बेड़ियों के बंधन में बंध जाता है| इसलिए दोनों में से किसी ने भी घर नहीं छोढ़ा|
एक हफ्ते बाद भी दोनों में मन मुटाव कम नहीं हुआ| शीला टीवी देख रही है और पति को नज़र-अंदाज़ कर रही है| विशाल फ्रिज से पानी निकाल के पीते हुए सोच रहा है कि मैंने क्यों इस लड़की से शादी की| इससे अच्छा तो अकेला रहता| ज़िंदगी नरक हो गयी है| तलाक अभी दे सकता हूँ| कल को बच्चे होंगे तब और मुश्किल होगी| हाँ आज बदनामी होगी लेकिन लोक लाज के चलते मैं ऐसा जीवन तो नहीं जी सकता| बोलने वाले तो चुप हो जाएंगे| कम से कम जीवन सँवर जाएगा| अरेंज्ड मैरिज करने से यही होता है| काश कि मैंने कुछ और समय ले कर अपने पसंद कि लड़की से शादी की होती| जीवन में शांति होती|
शीला के फोन की घंटी से विशाल के अविरल विचारों की धारा रुक गयी| शीला का चेहरा एकदम से बदल गया| वह बहुत डरी हुई लग रही थी|
“लेकिन सर डाटा तो सिर्फ मेरे पीसी में था और मेरा पासवर्ड सिर्फ मेरे पास है| लीक कैसे हो सकता है?
“सर लेकिन आप लोग मुझे भी तो अपना साइड रखने का एक चान्स दीजिये| आप मुझे दो साल से जानते हैं, आपको लगता है कि मैं ऐसी बेईमानी करूंगी? सर प्लीज़ लिसन टू मी|

शीला के कुछ बोलते बोलते फोन काट दिया गया| वह काँप रही थी| उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था| वह रोने लगी| विशाल भी खड़ा देख रहा था| उसे समझ आ गया की शीला को नौकरी से निकाल दिया गया है| उसका सारा ईगो, सारा गुस्सा एकाएक गायब हो गया| दुख की घड़ी सच्चे प्रेम को अद्भुत ऊर्जा प्रदान करती है| वह शीला के साथ बैठ गया और खुद भी रोने लगा| इतने दिनों बाद दोनों बैठकर कुछ काम साथ साथ कर रहे थे| विशाल ने मन में प्रण लिया कि शीला को इस मुसीबत से निकाल कर वह अपने अशुद्ध विचारों का पश्चाताप करेगा|

Wednesday, 13 March 2019

हृदय परिवर्तन

दिनेश सेठ करोड़ों की संपत्ति के मालिक होने के बाद भी साधारण जीवन व्यतीत करते थे| गलत ना समझें, वे पिछड़े लोगों में से नहीं थे| उस शहर में अपने व्यापार को इन्टरनेट पर लाने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे| समय के साथ आगे बढ़ना पसंद करते थे| लेकिन दिखावा करना उनका स्वभाव नहीं था| दो तल्ले का मकान, आँगन में बगीचा, मारुति की पाँच सीटर कार, और 15000 का मोबाइल फोन| इससे ज़्यादा की ज़रूरत उन्हें महसूस नहीं होती थी, और दूसरे को प्रभावित करने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी| समाज के लोग भी उनके इस गुण की तारीफ करते|

"चाहें तो 4 बंगले खरीद लें, लेकिन जो मेहनत से कमाता है, वो पैसे की कीमत जानता है| बड़े भले व्यक्ति हैं"

"इतना धन इकट्ठा करने के बाद भी उसका घमंड नहीं करते| इतना सादा जीवन; यही महान व्यक्तित्व का परिचायक है"|

उगते सूरज को सब प्रणाम करते हैं| सम्पन्न वर्ग जो भी करे वह बाकी जनों के लिए अनुसरण योग्य पथ बन जाता है, अन्यथा सादा जीवन तो स्वेच्छा से माध्यम वर्ग के भी कई परिवार करते हैं, किन्तु उन्हें कटाक्ष और व्यंग्य का पात्र बना दिया जाता है|

दिनेश सेठ अपने महीने का हिसाब लगा रहे थे कि तभी वहाँ औसत कद काठी का एक पुरुष हाथ जोड़ते हुए आया| दिनेश सेठ ने गौर से देखा तो उसे पहचान लिया| "उत्तम! यहाँ क्यों आया है?" सेठ जी के माथे पर बल पड़ गए| उत्तम को 3 साल पहले उन्होने नौकरी से निकाल दिया था| उत्तम शराब पी कर काम पर आता था, और  यह बात सेठ जी को बिलकुल पसंद नहीं थी| अपने उदारवादी स्वभाव के चलते उसे दो बार चेतावनी भी दी, लेकिन उत्तम नहीं सुधरा| तीसरी बार सेठ ने उस नशेड़ी को कौलर पकड़ कर बाहर निकाल दिया| फिर कभी उत्तम उस तरफ नहीं आया| बाद में सेठ जी को ये  खबर भी आई कि चोरी चकारी के चक्कर में उसे जेल हो गयी है| आज तीन साल बाद भी उत्तम को देख कर उन्हें कोई विशेष प्रसन्नता नहीं हुई|

"सेठ जी मुझे माफ कर दीजिये| आपने मुझे नौकरी पर रखा, मुझे गलत आदतों से दूर रहने की बात भी समझाई, लेकिन मैं ऐसा मूर्ख, कि मैंने कभी आपकी बात मानी ही नहीं| मुझे माफ कर दीजिये" यह कहते हुए वह सेठ के पैरों में गिर गया| सेठ जी चिढ़ गए| वे सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, उन्हें यह सब बिलकुल पसंद नहीं आया| "देख उत्तम, मेरे पास इस नौटंकी के लिए वक़्त नहीं है| तू यहाँ से चला जा|"  मगर उत्तम नहीं डिगा, "सेठ जी आप मेरे लिए भगवान हैं| मैंने अपना सबक सीख लिया है| आप मुझे सिर्फ एक और मौका दीजिये| जो भी काम देंगे वो करूंगा, जितना रोजी देंगे उतना चुपचाप ले लूँगा| सब बुरी आदतें छोड़ चुका हूँ, बस शराफत से 2 पैसे कमाना चाहता हूँ ताकि रोटी खा सकूँ|" भगवान का मन थोड़ा पिघल गया| सही राह पर आते व्यक्ति की मदद करना पुण्य का काम है| थोड़ी देर अनुनय विनय करने के उपरांत वे मान गए| "ठीक है, कल से सामान लाने ले जाने का काम कर| रोज का 200 दूंगा| अगर तूने शराब पी या कोई ऐसी वैसी हरकत की, तो मुझसे बुरा कोई न होगा|" "अपनी माँ की कसम  खा कर कहता हूँ सेठ जी, आपको शिकायत का एक भी मौका नहीं दूंगा| "

रात को भोजन पर धर्म-पत्नी को दिनेश जी ने पूरी घटना बताई| लेकिन उनके इस लोक कल्याणकारी कदम की प्रशंसा करने के बजाए पत्नी ने आपत्ति दर्ज की| "इंसान का मूल स्वभाव नहीं बदलता| मैं तो इस उत्तम को काम देने के पक्ष में नहीं हूँ|"

"अरे! तुम तो यों कहती हो जैसे दुनिया में आज तक किसी का हृदय-परिवर्तन हुआ ही नहीं| ऋषि वाल्मीकि भी ऋषि होने से पहले डाकू थे| गांधी जी ने भी बचपन में चोरी की थी| कोई मनुष्य गलती करे तो इसका ये मतलब नहीं की समाज उसे त्याग दे| आज मैं उसे नौकरी नहीं देता, तो फिर सब गलत धंधे में लग जाता| उसने लड़कपन में गलतियाँ की, लेकिन अब उसकी आवाज़ में मुझे सच्चाई सुनाई दी" पति का समाज सुधारक गुण प्रायः पत्नी को रास नहीं आता| इसके पीछे कुछ बड़े कारण हैं| एक तो पति के द्वारा लिए गए निर्णय तर्क-संगत नहीं होते, ऊपर से ऐसे उच्च-मूल्यों वाले लंबे-चौड़े भाषण का प्रहार भी पत्नि को ही सहना पड़ता है| सेठानी जी के लिए भी ये सब रोज़-मर्रा की बात थी, इसलिए आगे बहस करने की अपेक्षा भोजन कर के सो जाना उन्हें बेहतर विकल्प लगा|

1 वर्ष बीत गया| उत्तम अपने नाम के अनुरूप ही काम भी कर रहा था| उसे देख कर दिनेश जी को अपने ऊपर गर्व भी होता, संतुष्टि भी मिलती, प्रसन्नता भी होती| किसी को अवसर प्रदान कर उसका जीवन सही रास्ते  पर ले आना निस्संदेह पुण्य का काम है| इतनी निष्ठा और समर्पण देख कर सेठ जी ने उसे डिलिवरी के साथ साथ वसूली के काम पर भी लगा दिया| उत्तम भी प्रोमोट हो कर खुश हुआ| सेठ जी ने उसकी सैलरी बढ़ाने की बात की तो कहने लगा  "आपने मुझे इस लायक समझा यही मेरे लिए बहुत है सेठ जी| मुझे पैसों का लालच नहीं" यह सुन कर दिनेश सेठ ने उसकी सैलरी दोगुनी कर दी| अब उत्तम सामान के साथ साथ सेठ जी का पैसा भी संभालने लगा| लोगों के बीच में उसकी पहचान हो गयी| ऐसे ही और कई महीने बीत गए|

ठंडी का मौसम था और सेठ जी सुबह सुबह धूप सेंक रहे थे| तभी 4-6 पुलिस वालों की टोली उनके घर आ पहुंची| इंस्पेक्टर बोला, "दिनेश जी, आपको अरेस्ट करने आए हैं| हमारे साथ थाने चलिये| और प्लीज़ को-औपरेट कीजिये|" सेठ जी हकबका गए| "आपको कुछ गलतफहमी हुई होगी इंस्पेक्टर साहब| मैंने कौन सा जुर्म किया है?" "आप चरस-गाँजा का धंधा कर रहे हैं| चलिये पुलिस स्टेशन" तब तक वहाँ सेठानी जी भी आ गईं| "मैं फिर कह रहा हूँ इंस्पेक्टर साहब, आपको गलत फहमी हुई है| मेरा चरस गांजे से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है|"

"अरे ये सब क्या हो रहा है?" सेठ जी की धर्म-पत्नी भय से काँपने लगीं और रोने लगीं|

पुलिस वाले टस से मस नहीं हुए| "आप अपना पक्ष पुलिस थाने में रखिए| आपके एजेंट को हमने पहले ही गिरफ्तार कर रखा है|"

"कौन एजेंट?"

"उत्तम सिंह| पूरे एरिया में चरस गाँजा सप्लाई करता है| आज उसे रंगे हाथों पकड़ा हमने| 4 डंडे पड़े तो बताया कि सब आपकी देख रेख में हो रहा है और वह सिर्फ आपका प्यादा है| आपकी शहर में इतनी इज्ज़त है, और आपकी असलियत ये है? अब जल्दी पुलिस स्टेशन चलिये"

दिनेश सेठ कुछ बोल नहीं पाये| उनकी आँखें नम हो गईं| वे चुपचाप पुलिस के साथ चल दिये| उनकी पत्नी उन्हे कोसने लगीं, फिर उत्तम को कोसने लगीं; फिर भगवान को कोसने लगीं, समाज को कोसने लगीं, मानवता को कोसने लगीं| जब थोड़ा संभल गईं, तो वकील को फोन किया| मामला संगीन था पर वकील भी बहुत काबिल था| 1 महीने हिरासत में रहने के बाद सेठ जी जमानत पर घर वापस आए| पर मुकदमा तो अभी कई साल चलेगा|