Tuesday, 11 February 2014

कैम्पस प्लेसमेंट्स और हमारी बैच

इंजीनियरिंग का चौथा वर्ष शुरू होने से पहले ही आम जनता में हडकंप मच जाता है| अग्नि परीक्षा सामने देख जनता का "चिल्ड" मूड काफूर हो जाता है, अच्छे अच्छे "कूलडूड" फन्ने खां भी बिस्तर छोड़ कर इंडियाबिक्स और आर एस शर्मा कि शरण में आ जाते हैं| "फलां कंपनी कब आ रही है और कितना दे रही है" जैसे सवाल भारतीय संविधान कि आठवीं सूची में दिए गए समस्त 22 भाषाओँ में पूछे जाते हैं| हमारे राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (NIT) रायपुर का नज़ारा भी कुछ ऐसा ही था| बात 2012-13 की है| अब हर कंपनी का व्यक्तिगत अनुभव बांटने बैठा तो आप इसी वक्त यह विंडो बंद कर देंगे, और मेरे सम्मान में दो शब्द कहते हुए वापस अपने काम में लग जायेंगे| इसलिए मै ये बताने का प्रयास करता हूँ कि एक टिपिकल प्लेसमेंट दिवस पर माहौल क्या रहता था|

सबसे पहले कंपनी के "प्री-प्लेसमेंट टॉक" लिए सुबह सुबह जनता पधारती थी| अपने जो बालक 4 दिन में एक बार नहाकर अपने पडोसी पर एहसान करते थे, वो इस दिन टिप-टॉप बन कर, उधार की टाई लगाकर, क्लीन-शेव होकर हाथ में फ़ाइल लिए पहुँचते थे| महिला-वर्ग पर मै टिपण्णी नहीं करूँगा| फेमिनिजम का दौर है जी, कौन जाने कोई इस लेख को महिलओं का अपमान बताकर मुझे अदालत का नोटिस भिजवा दे| खैर, वस्त्र-परिधान कोई विशेष चर्चा का विषय नहीं रहता| सो जाने दें| बात करते हैं "प्री-प्लेसमेंट टॉक" की| यह नाम सुनने में जितना उबाऊ लगता है, असल में उससे कहीं ज्यादा उबाऊ होता है| हर कंपनी आ कर कुछ देर तक अपना खूब बखान करती है| गोया माइक्रोसॉफ्ट और एप्पल के बाद इन्ही काम नाम चलता है| वो सब तो ठीक भी था, पर इसके बाद हम कैंडिडेट्स पर सवाल पूछने का अवांछनीय दबाव डाला जाता था| "एनी क्वेश्चंस, एनी क्वेश्चंस" बोलते हुए जब प्रस्तुतकर्ता किसी की ओर नज़र डालता, तो वो प्राणी फिर शुर्तुर्मुर्ग की भांति अपना सर जन-मानुस के रेगिस्तान में छुपा लेता| चंद साहसी जन सवाल भी पूछते| अच्छे सवाल कौन से हुआ करते थे, यह बता पाना मुश्किल है, लेकिन थोड़े कम अच्छे सवाल पूछे जाने पर बाकी जनता दाँत निपोर कर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करा देती|

पहला राउंड लिखित परीक्षा यानी की रिटन एक्साम हुआ करता था| चूंकि NIT में परीक्षाओं को कुछ ज्यादा ही महत्व देने की परंपरा रही है, इस कारण से इन एग्जाम्स में आपका ईमानदार होना अनिवार्य था| पर इसका ये मतलब बिलकुल नहीं की यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार से अछूती थी| खैर, रिटन एग्जाम का परिणाम आते ही जनसँख्या आधी हो जाति थी| असफल उम्मीदवार या तो प्रक्रिया को कोसते, या किस्मत को कोसते या बिना श्री-मुख खोले ही वहाँ से प्रस्थान कर जाते| कुछ ऐसे भी होते थे जो सेलेक्टेड मित्रों के उत्साह-वर्धन के लिए गार्डन में बैठक जमा लेते| (उत्साह-वर्धन ख़ाक होता था, दुनियादारी की गप ज्यादा होती थी)| पर असली खेल तो अब शुरू होता था|

ग्रुप डिस्कशन यानी सामूहिक चर्चा का दौर आते ही उन मित्रों को तलब किया जाता जो रोज़-मर्रा की खबर पर ज्ञान बघारते नहीं थकते थे| यूँ तो आम दिनों में मित्रों के "ग्रुप डिस्कशन" में इनकी तरफ कोई देखता भी नहीं था, लेकिन आज इनकी हैसियत उस एक्सपर्ट से कम नहीं रहती जिसे टीवी पर चर्चा के लिए बुलाया जाता है (और जिसका स्वर विभिन्न पार्टियों के नेताओं के स्वर के सामने फीका पड़ जाता है)| इनके राजनैतिक, आर्थिक एवं सामजिक विचारों को ही ब्रह्म-वाक्य मानकर अपनी जनता वाक्-युद्ध करने निकल पड़ती| कुछ तो चर्चा के वक्त उस एक्सपर्ट के भी दो कदम आगे निकल जाते और वो दलीलें भी दे जाते जो उन्होंने अपने एक्सपर्ट से नहीं सुनी थी| बोल दो जी, कोई प्रेस-कोंफरेंस थोड़े ही है| "कांफिडेंस मैटर्स डूड"

ये क्षणभंगुर सम्मान पाने के उपरान्त ये सारे एक्सपर्ट्स वापस अपने सामजिक स्तर पर पहुँच जाते और अंतिम राउंड के लिए इनका स्थान ले लेते आदर्श बालिका/बालक| समाज के दुलारे, अर्थात कक्षा में अव्वल आने वाले विद्यार्थी, "टॉपर्स"| साक्षात्कार यानी की इंटरव्यू में जिन जिन सवालों का इल्म होता जाता, उनका जवाब जानने के लिए उम्मीदवार इन "टॉपर्स" का सहारा लेते| इच्छा केवल उत्तर की नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे उचित और उपयुक्त उत्तर की रहती| लेकिन जैसे जैसे समय बीतता जाता और सवाल रीपीट होते जाते, "टॉपर्स" का भी हाल सामूहिक चर्चा वाले एक्सपर्ट्स की तरह हो जाता| इस दौरान एक और घटना होती जिसपर लोगों का ध्यान कम गया| जैव-विविधता की हानि| परिणाम का इन्तेज़ार करते हुए, चिंतित उम्मीदवार ना जाने कितने ही घास के तिनके उखाड फेंकते| परिणाम-स्वरुप उसमे बसे कीट-पतंगों को भी रीलोकेट करना पड़ता था| यही प्रकृति का नियम है, समाज के संपन्न वर्ग के नखरों का बोझ असम्पन्न वर्ग को उठाना पड़ता है| 

आख़िरकार दिनभर की तनाव-पूर्ण प्रक्रिया समाप्त होने पर जब नतीजे निकलते, तो नाना-प्रकार की भावनाओं से ओत-प्रोत जनता थोड़ी सी "अब-नॉर्मल" हो जाती| प्रसन्नता और निराशा का एक पवित्र संगम दिख पड़ता| "फोड दिया बे" और "कोई नहीं, अगली में देखना" जैसे देसी शब्दों के अलावा, "कोंग्रट्स ब्रो" और "चिल डूड" जैसे फिरंगी लफ्ज़ भी सर्व-व्यापी थे| उत्साह से भरे मित्र, चयनित व्यक्ति के नितम्भो पर अपने पदों से बेहिसाब प्रहार करते हुए अपनी प्रसन्नता का परिचय देते थे| (कुछ सूत्रों की मानी जाये तो ये प्रथा नर और मादा दोनों ही प्रजातियों में प्रचलित थी)| 

इस सब के बाद भी सेलिब्रेशन के नाम पर बहुत कुछ होता था पर ये सब बता पाना संभव नहीं| बात सिर्फ़ ऐसी है कि जनता और भी कई नौकरियां करेगी, पैसे भी कमाएगी, कुछ नसीब वालों को वही मित्र भी मिल जायेंगे, लेकिन ये वातावरण फिर कभी नहीं आएगा|

4 comments:

  1. Replies
    1. apki is pankti यही प्रकृति का नियम है, समाज के संपन्न वर्ग के नखरों का बोझ असम्पन्न वर्ग को उठाना पड़ता है ne man ko pulkit kar diya :)

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