Wednesday, 25 February 2015

अन्ना माझी सटकली!

अन्ना जी के लिए मैं कोई अनादर प्रकट नहीं करना चाह रहा हूँ| मेरी समस्या यह है कि इस देश में विकास सबको चाहिए पर अब भी लोग रूमानी समाजवाद के जंजाल से निकल नहीं पाए हैं| किसी कारण से 1991 के बाद की हमारी विकास गाथा को भी कुछ इस तरह पेश किया गया है कि हमें अपने ही विकास से शिकायत है| ऐसा एक और अवसर अब सामने आया है| भूमि अधिग्रहण एक्ट पर लाए गए अध्यादेश (ordinance) को लेकर बहुत चिल्ल-पों मच रही है| योगेन्द्र यादव तो हमको अंग्रेजों के ज़माने में ले जा रहे हैं| कहते हैं सरकार आपके घर में घुस के बोलेगी “ये लो पैसा और निकलो”| कोई कह रहा है किसानों पर अत्याचार होगा| कोई कहता है यह सरकार प्रो-कौरोपोरेट है, और एंटी-पूअर है| यहाँ तक कि संघ भी विपक्षी दलों के साथ दिख रहा है| इन सबका मानना है कि अगस्त 2013 में लाया गया भूमि अधिग्रहण एक्ट कृषि हित में था, तथा सर्व-सम्मति से बना था, अतः वही एक्ट लागू होना चाहिए|

चलिए पहले इसी मिथक को तोड़ते हैं| 27 जून 2014 को ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा बुलाई गई एक बैठक में कई कांग्रेस शासित राज्य सरकारों ने इस बिल के कुछ मूलभूत अंशों का विरोध किया था| इनमें केरल, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश भी शामिल थे| किसी को सहमति (consent) वाले खंड से परहेज था, तो कोई सामाजिक प्रभाव के आंकलन (social impact assessment) को स्वीकार नहीं करना चाह रहा था| तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने खुले मंच पर कहा था, “इस एक्ट से तो एक भी अधिग्रहण नहीं होने वाला, पता नहीं मेरी पार्टी ने सदन में इसका समर्थन क्यों किया|” गडकरी जी, आपको राजनीति का काफी अनुभव है, आप भली भांति जानते हैं इस बिल का विरोध करने का चुनाव पर सीधा असर क्या होता| पर मुझे आश्चर्य इस बात पर है कि कांग्रेस की राज्य सरकारों को विश्वास में लिए बिना ऐसा क़ानून कैसे बन गया| फिर पता चला, यह क़ानून युवराज की देन है| दीनबंधु, भक्त-वत्सल श्री राहुल गाँधी का सुझाया प्रोजेक्ट भला किसका विरोध सुनेगा| खैर, ज़मीनी हकीकत यह है, कि वास्तविक क़ानून लगने से अधिग्रहण इतना मुश्किल हो गया था कि निवेशक दूर से ही प्रणाम कर के निकल जाते| जैसा की चिदंबरम जी ने कहा है, “सर्वश्रेष्ठ नीति वही है जो निवेश लाये”| यही सत्य है| योगेन्द्र यादव जी,  आप समाजवाद का चोगा ओढ़ कर इससे मुँह मोड़ सकते हैं, किन्तु उससे सत्य नहीं छुपेगा| बिना निवेश के ना आप फ्री पानी दे पाएंगे, ना बिजली ना वाई-फाई| ज़ाहिर है, निवेश लाने के लिए कुछ बदलाव ज़रुरी थे|
 तो ये कौन से बदलाव थे? सरकार ने पांच तरह के प्रोजेक्ट्स के लिए लोक-सहमति (public consent) एवं सामाजिक प्रभाव के आंकलन (social impact assessment) जैसी शर्तों को हटा दिया| यह हैं सुरक्षा, ग्रामीण अधोसंरचना (rural infrastructure), अधोसंरचना (infrastructure), किफायती आवास (affordable housing) और औद्योगिक कॉरिडोर (industrial corridor)| कुछ मित्र मानते हैं कि इन श्रेणियों में किसी भी प्रोजेक्ट को भी अडजस्ट किया जा सकता है| गोया प्रोजेक्ट ना हुआ, भारतीय रेलवे का जनरल डब्बा हो गया| अडजस्ट कैसे करेंगे? आप रियल एस्टेट, होटल और प्रवासी कॉलोनियां बनाने को इनमें से किस श्रेणी में डालेंगे प्रभु? याद रखिये कि आवास भी किफायती होना चाहिए, वरना प्रोजेक्ट क्लियर नहीं होगा सर| ग्रामीण संरचना का अर्थ है मुख्यतः सिंचाई योजना, विद्युतीकरण, विद्यालय आदि| लोगों को आश्चर्य होना चाहिए कि इस “कृषि-प्रधान” देश में आज भी केवल 56% कृषि भूमि सिंचित है| संभवतः दो बार लगातार मानसून का निष्फल होना हमारी खाद्य सुरक्षा की कमर तोड़ देगा, और आप कहते हैं यह बदलाव कृषि विरोधी है? जिन लोगों ने दशकों तक इस देश में शासन करने के बाद भी हमको इस परिस्थिति में छोड़ा है, असल में वे किसान विरोधी हैं|  इसी प्रकार बिना विद्युतीकरण के, क्या हम ये उम्मीद करते हैं कि हम कृषि में आधुनिक तकनीक का प्रयोग करेंगे? बिना सुविधा दिए किसानों का समर्थन कैसे किया जाता है, ये कला आपको योगेन्द्र यादव और अन्ना हजारे सिखा सकते हैं| इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स (सड़क, बिजली, संचार माध्यम इत्यादि) में स्वामित्व तो भारत सरकार के पास ही रहेगा| बिना इन संसाधनों के कोई भी देश विकास करने के बारे में कैसे सोच सकता है| पिछली NDA सरकार ने इन प्रोजेक्ट्स पर विशेष ध्यान देते हुए करीब 6 करोड़ रोजगार पैदा किये| तो बजाये इसके कि हम इनका क्रियान्वयन आसान बनाएँ, हम लगे हैं जनहित का खोखला पोंगा बजाने में|  इसी प्रकार औद्योगिक कॉरिडोर जो कि बहुत ही कम क्षेत्र घेरते हैं, में बने हुए कारखानों में अनिवार्य रूप से विस्थापित परिवारों के एक सदस्य को रोज़गार की सुविधा मुहैय्या कराना आवश्यक है| तो क्या योगेन्द्र यादव और अन्ना हजारे,, कृषि-क्षेत्र को सशक्त करने, रोज़गार पैदा करने, या किफायती घर प्रदान करवाने के प्रयास को गरीब विरोधी कृत्य कहते हैं? आपका स्टैंड समझ नहीं पाता हूँ सर|
इस बिल को किसान विरोधी नारे के ध्वज तले कुचला जा रहा है| शायद इसलिए क्योंकि इस अध्यादेश में फसली क्षेत्र के अधिग्रहण की भी इजाज़त देता है| किन्तु, ये मान लेना कि हर अधिग्रहण खेतों का ही होगा, मुझे बड़ा बचकाना सा लगता है| अपवाद हो सकते हैं, किन्तु सरकार हमारी खाद्य सुरक्षा के साथ समझौता नहीं करेगी| इतना विश्वास तो करना चाहिए| वैसे भी ऐसे खतरे में NGO, राजनीतिक विरोधियों की कमी नहीं है| इसलिए इस पर आवश्यकता से अधिक चिंता करना, मुद्दे से भटकना होगा|

 एक मित्र ने अपने ब्लॉग पर एक दिलचस्प स्थिति का वर्णन किया है| मेरे मित्र के अनुसार वास्तविक क़ानून ना आने से नक्सलवाद को बढ़ावा मिल सकता है| (सोचने वाली बात यह है कि नक्सलवाद, समाजवादी किसान-प्रेमी शासन की आँखों के सामने पैदा हुआ था, तब यह क़ानून क्यों नहीं लाया गया)| पर मैं इसके उलट एक परिस्थिति का वर्णन करने का प्रयास करूँगा| मान लीजिए वास्तविक कानून बना रहता है| इससे भूमि अधिग्रहण लगभग असंभव हो जायेगा, अधोसंरचना विकसित नहीं होगी, व्यापार ठहर जायेगा,  रोज़गार पैदा नहीं होंगे| लोग अपनी “सुरक्षित” ज़मीन पर बिना रोज़गार के “सुरक्षित निठल्ले” बैठेंगे| खाली बैठे बैठे हुक्का फूकेंगे| बच्चों को खिलाने, पढाने के लिए पैसे नहीं होंगे| ज़ाहिर है, वे कुपोषित और अशिक्षित रहेंगे (ये यादव जी का प्रो-पूअर मॉडल है?) | अब क्यूंकि हमारी जनसँख्या का एक बहुत बड़ा भाग युवा है,  वह रोज़गार के अवसर से वंचित रह जायेगा| बेरोजगार युवाओं को भड़काने के लिए सारी राष्ट्र-विरोधी ताकतें एक साथ आ जाएँगी| दंगा फसाद होगा, अराजकता फैलेगी| तब अन्ना अनशन पर बैठेंगे कि दंगा रोको, और योगेन्द्र यादव कहेंगे देश राष्ट्र विरोधी ताकतों का शिकार हो रहा है| एक और दिलचस्प बात, इससे सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों का ही होगा| ये कैसा लगा सर?

अंत में मै बस यही कह सकता हूँ, कि राजनैतिक दलों को सरकार अनदेखा कर सकती है, जनता या किसानों को नहीं| इस दिशा में सरकार ने किसानों की शिकायत के निपटारे के लिए एक कमिटी गठित की ही| यह स्वागत-योग्य है| दूसरी बात, अध्यादेश का क़ानून में बदलना ज़रुरी है| निवेश अध्यादेशों पर नहीं आता| पर निश्चय ही जेटली जी खुद इतने समझदार हैं| शायद अब समय आ गया है कि समाजवाद के बहु-प्रसारित आदर्श राज्य की निद्रा से हम पूरी तरह जागें और इतिहास से सीखते हुए अपना कल्याण करें| बाकी रवीश कुमार जी के शब्दों में, “जो है, सो तो हैय्ये है”|


पी.एस.: एक बार कोई किसान प्रेमी पार्टी से पूछे कि महाराष्ट्र में आत्म-हत्या करते किसान
पिछले
10 वर्षों से किसके शासन में जी रहे थे|

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